पूज्य “सद्गुरुदेव” शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज ने गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर अपनी हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए गुरु शब्द की महनीयता का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा – ये देश गुरुओं का देश है, सत्पुरुषों का देश है। भारत सदियों से विश्व गुरु रहा है। गुरु अर्थात् विचार सत्ता, ज्ञान सत्ता और प्रकाश सत्ता है। जिसके पास विचारों का प्रकाश है, उसी का जीवन सार्थक है। ज्ञान हमारे भीतर में छुपी अनन्तता और विराटता का बोध कराने वाला तत्व है। सद्गुरु एक ऐसा प्रथम दीप है जिससे असंख्य दीप प्रज्ज्वलित हो सकते हैं। धरती पर स्वामी विवेकानन्द बन जाना तो इतना कठिन नहीं है, जितना रामकृष्ण परमहंस बनकर विवेकानन्द को जन्म देना; यह अत्यंत ही कठिन कार्य है। दुनिया में एक सद्गुरु हजारों-लाखों सुपात्र शिष्यों को ज्ञानामृत और आशीष देकर अपने जैसे तमस् का तिरोहण करने वाले सूर्य बना सकते हैं, लेकिन अनेक शिष्य मिलकर एक सद्गुरु का स्वरूप तैयार नहीं कर सकते। लाखों-करोड़ों वर्षों की तपस्या के बाद किसी व्यक्ति के भीतर गुरुतत्व प्रकट होता है। गुरू ही परमात्मा का दूसरा स्वरूप है; क्योंकि गुरू बिना ज्ञान अर्जित नहीं होता और बिना ज्ञान के हम परमात्मा की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं। गुरू कृपा मात्र से हमारा जीवन आनन्द एवं प्रकाश से परिपूर्ण हो जाता है। गुरू की दिव्य दृष्टि से हम अचेतन से चेतन की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर एवं स्वार्थ से परमार्थ की ओर अग्रसर होते है। गुरु यानी – मर्यादा। यदि आपके पास मर्यादा है और आप किसी के शील, संयम एवं उसकी मर्यादा का हनन नहीं कर रहे हैं तो ही आप आध्यात्मिक हैं। “पूज्य महाराज श्री” जी ने कहा – आत्मानुशासन, सह-अस्तित्व समता, सर्वभूत हितेरता जैसे उच्चस्तरीय भाव के कारण ही सम्पूर्ण विश्व हमारी और झाँक रहा है।
आपको बता दें की पूज्य शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज का चातुर्मास्य व्रत अनुष्ठान इस वर्ष देवभूमि द्वारका – गुजरात स्थित शारदापीठम में हैं । महाराजश्री बदरिका आश्रम बद्रीनाथ की पीठ के शंकराचार्य होने के साथ साथ द्वारका शारदापीठम के भी शंकराचार्य हैं ।
अपने श्रद्धालुओं को मार्गदर्शित करते हुएँ पूज्य महाराजश्री जी ने कहा – मानव का लक्ष्य भगवान को पाने के लिए ज्ञान प्राप्त करना है। इसके लिए गुरु की आवश्यकता होती है। किसी भी प्रकार की कला, संस्कृति, शास्त्र आदि सीखने के लिए शिक्षक की जरूरत होती है। उसी प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। उन्होंने कहा कि अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करने के लिये एवं कल्याण के पद पर चलने की प्रेरणा भी गुरू से ही मिलती है। समस्त लोक व्यवहार को पूर्ण करते हुए परमात्मा की ओर प्रवृत्त हो आत्मकल्याण को प्राप्त करना ही गुरू पूजा का प्रथम लक्ष्य है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वार्थ त्याग कर गुरू के बताये मार्ग पर चलकर समाज कल्याण के लिये सदैव तत्पर रहना चाहिए। पूज्य महाराज श्री ने कहा कि गुरू पूर्णिमा अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का पर्व है; क्योंकि गुरू ही परमात्मा से मिलने का मार्ग शिष्य को दिखाते हैं और गुरू के सानिध्य में साधना करने से जीवन में निष्काम भक्ति अवतरित होती है, जो मोक्ष का मार्ग दिखाती है। जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों के बाद ही सद्गुरू की प्राप्ति होती है। इसलिये गुरू की सच्चे मन से सेवा करनी चाहिये और उनसे ज्ञान की प्राप्ति कर जीवन की समस्त विसंगितयों का शमन करना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा करते हैं, सद्गुरूदेव उनकी सभी मनोकामनायें पूर्ण करते हैं।
गुरुपूर्णिमा वस्तुत: अनुशासन एवं अनुबन्ध का पर्व है।
गुरुपूर्णिमा वस्तुत: अनुशासन एवं अनुबन्ध का पर्व है।आज के दिन ही गुरु अपने शिष्यों को ईशानुशासन समझाते हैं और उस पर चलने की प्रेरणा देते हैं। सद्गुरु चरणों का ध्यान, उनका पूजन, वंदन, सेवा और सत्कार करते समय मन में जितनी श्रद्घा-आस्था और प्रेम भाव होगा उतनी ही शीघ्रता से कल्याण के कपाट खुलते जाएंगे। गुरु अपने शिष्य को एक ऐसी सुदृष्टि प्रदान करते हैं जिससे उसकी सृष्टि बदल जाती है, ऐसी सुदिशा प्रदान करते हैं, जिससे उसके जीवन की दशा बदल जाती है। गुरु और शिष्य का रिश्ता समर्पण के आधार पर टिका होता है। जीवन-समर को पार करने के लिए सद्गुरु रूपी सारथी का विशेष महत्व होता है। शिष्य के लिए तो सद्गुरु साक्षात् भगवान ही होते हैं। वह समय-समय पर समुचित मार्गदर्शन कर शिष्य को आगे बढ़ाते हैं। खासकर आध्यात्मिक सफलता की दिशा में बढ़ना हो तो गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य रूप से लेना पड़ता है। आत्मा-परमात्मा संबंधी ज्ञान गुरु के सहारे ही होता है। पुस्तकें पढ़ कर कोई उपदेशक तो बन सकता है, पर उसमें गहराई तक उतर कर हीरे-मोती निकालने का ज्ञान तो कोई सद्गुरु ही देता है।